त्रिवेंद्र सिंह रावत पौड़ी जिले के जयहरीखाल ब्लाक के खैरासैण गांव के रहने वाले हैं। यहां 20 दिसंबर सन् 1960 को प्रताप सिंह रावत और भोदा देवी के घर त्रिवेन्द्र सिंह ने जन्म लिया। इनका विवाह सुनीता रावत से हुआ है। सुनीता रावत एक शिक्षिका हैं और देहरादून में नियुक्त हैं। इनकी दो बेटियां हैं। त्रिवेंद्र रावत ने स्नातकोत्तर और पत्रकारिता में डिप्लोमा किया है।
त्रिवेंद्र सिंह रावत का परिवार एक आम पहाड़ी परिवार के जैसा है। त्रिवेंद्र रावत के पिता प्रताप सिंह रावत सेना की बीईजी रुड़की कोर में कार्यरत रहे हैं, उनके पिता प्रताप सिंह रावत गढ़वाल राफयल के सैनिक रहते हुए दूसरे विश्वयुद्ध की लड़ाई लड़ चुके हैं।
त्रिवेंद्र सिंह, 9 भाई बहनों में सबसे छोटे हैं, रावत की शुरुआती पढ़ाई लिखाई खैरासैण में ही हुई, त्रिवेन्द्र ने कक्षा 10 की परीक्षा पौड़ी जिले में ही सतपुली इंटर कॉलेज और 12वीं की परीक्षा एकेश्वर इंटर कॉलेज से हासिल कीजबकि उनके एक भाई आज भी गांव में वैज्ञानिक तरीके से संगध पौधों की खेती कर रहे हैं। शुरू से ही शांत स्वभाव वाले त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने लैंसडाउन के जयहरीखाल डिग्री कॉलेज से स्नातक और गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर से स्नातकोत्तर की डिग्री की
आठ भाई और एक बहन में त्रिवेंद्र सबसे छोटे हैं। उनके एक भाई बृजमोहन सिंह रावत आज भी खैरासैंण स्थित गांव के पोस्ट ऑफिस में पोस्टमास्टर हैं। जो सपरिवार गांव में ही रहते हैं, त्रिवेंद्र के दो बड़े भाईयों का इस बीच निधन हो चुका है, उनका परिवार भी गांव में पैतृक घर में रहता है। एक भाई का परिवार सतपूली कस्बे में रहता है, जबकि त्रिवेंद्र से ठीक बड़े विरेंद्र सिंह रावत जयहरीखाल में रह कर पहाड़ में नई तरीके की खेती को बढ़ावा दे रहे हैं।
त्रिवेंद्र ने आठवीं तक की पढ़ाई अपने मूल गांव खैरासैण स्थित स्कूल में की है। इसके बाद 10वीं की पढाई इंटर कॉलेज सतपूली और फिर 12वीं इंटर कॉलेज एकेश्वर से की। त्रिवेंद्र ने स्नातक राजकीय महाविद्यालय जयहरीखाल से किया, जबकि पत्रकारिता में स्नातकोत्तर गढ़वाल विश्वविद्यालय कैम्पस श्रीनगर से किया है।
श्रीनगर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एमए करने के बाद त्रिवेन्द्र सिंह रावत 1984 में देहरादून चले गये। यहां उन्हें आरएसएस में अहम पदों पर जिम्मेदारी सौंपी गई। देहरादून में संघ प्रचारक की भूमिका निभाने के बाद त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मेरठ का जिला प्रचारक बनाया गया। जहां उनके काम से संघ इतना प्रभावित हुआ कि इन्हें उत्तराखंड बनने के बाद 2002 में भाजपा के टिकट पर कांग्रेस के विरेन्द्र मोहन उनियाल के खिलाफ चुनावी मैदान में उतार दिया गया।
त्रिवेंद्र सिंह रावत का राजनीतिक करियर
सन 1979 में रावत ने दक्षिणपंथी विचारधारा की सबसे बड़ी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सदस्यता ली और सन 1985 में संघ प्रचारक की हैसियत से काम करने लगे. इसके बाद इन्होने भारतीय जनता पार्टी में सदस्यता ली और इनका पैर सक्रिय राजनीति के मैदान में पडा. भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही रची हुई पार्टी है. इस दौरान वे सन 1993 में भाजपा के आयोजक सचिव हुए और इन्हें भाजपा के सीनियर नेता लालजी टंडन के साथ काम करने का मौक़ा मिला. ये उत्तराखंड आन्दोलन में भी बहुत सक्रीय नज़र आये. उत्तराखंड आन्दोलन उत्तराखंड को उत्तरप्रदेश से हटा कर एक नये राज्य के निर्माण के लिए था. इस आन्दोलन के दौरान इन्हें कई बार गिरफ्तार होना पड़ा. सन 2000 में एक अलग राज्य के निर्माण के बाद इन्हें भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड का पार्टी अध्यक्ष बना दिया.
इस दौरान इन्होंने कई और राजनैतिक गतिविधियाँ दिखाई. इस दौरान इन्होने सन 1989 उत्तरप्रदेश के मेरठ से प्रकाशित राष्ट्रदेव के संपादक के तौर पर काम किया. सन 2002 में इन्होने डोईवाला सीट से विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता. इसके बाद ठीक पांच साल बाद इन्होने पुनः इसी सीट से चुनाव लड़ा और फिर विजयी हुए. त्रिवेन्द्र मार्च 2013 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के रूप में नियुक्त हुए. इनकी सक्रियता, इनकी क्षमता और काम करने के तरीक़े को देख कर, इन्हें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपने साथ उत्तर प्रदेश के चुनाव के कार्यभार के लिए चुना. सन 2014 में इन्हें 'न्यू वोटर कैम्पिंग कमिटी' में अमित शाह, पूनम महाजन और नवज्योत सिंह सिद्धू के साथ रखा गया. इस काम में भी ये बहुत अच्छा करते हुए नज़र आये. सन 2014 में इन्हें झारखण्ड राज्य में भारतीय जनता पार्टी के इन चार्ज के रूप में काम करने का मौक़ा मिला. साथ ही तात्कालिक केन्द्रिय सरकार की एक प्रोजेक्ट 'नमामि गंगे', जिसका मूल उद्देश्य गंगा को प्रदुषण मुक्त करना है, में भी इन्हें सदस्य के तौर पर रखा गया.
त्रिवेंद्र सिंह रावत का परिवार एक आम पहाड़ी परिवार के जैसा है। त्रिवेंद्र रावत के पिता प्रताप सिंह रावत सेना की बीईजी रुड़की कोर में कार्यरत रहे हैं, उनके पिता प्रताप सिंह रावत गढ़वाल राफयल के सैनिक रहते हुए दूसरे विश्वयुद्ध की लड़ाई लड़ चुके हैं।
त्रिवेंद्र सिंह, 9 भाई बहनों में सबसे छोटे हैं, रावत की शुरुआती पढ़ाई लिखाई खैरासैण में ही हुई, त्रिवेन्द्र ने कक्षा 10 की परीक्षा पौड़ी जिले में ही सतपुली इंटर कॉलेज और 12वीं की परीक्षा एकेश्वर इंटर कॉलेज से हासिल कीजबकि उनके एक भाई आज भी गांव में वैज्ञानिक तरीके से संगध पौधों की खेती कर रहे हैं। शुरू से ही शांत स्वभाव वाले त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने लैंसडाउन के जयहरीखाल डिग्री कॉलेज से स्नातक और गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर से स्नातकोत्तर की डिग्री की
आठ भाई और एक बहन में त्रिवेंद्र सबसे छोटे हैं। उनके एक भाई बृजमोहन सिंह रावत आज भी खैरासैंण स्थित गांव के पोस्ट ऑफिस में पोस्टमास्टर हैं। जो सपरिवार गांव में ही रहते हैं, त्रिवेंद्र के दो बड़े भाईयों का इस बीच निधन हो चुका है, उनका परिवार भी गांव में पैतृक घर में रहता है। एक भाई का परिवार सतपूली कस्बे में रहता है, जबकि त्रिवेंद्र से ठीक बड़े विरेंद्र सिंह रावत जयहरीखाल में रह कर पहाड़ में नई तरीके की खेती को बढ़ावा दे रहे हैं।
त्रिवेंद्र ने आठवीं तक की पढ़ाई अपने मूल गांव खैरासैण स्थित स्कूल में की है। इसके बाद 10वीं की पढाई इंटर कॉलेज सतपूली और फिर 12वीं इंटर कॉलेज एकेश्वर से की। त्रिवेंद्र ने स्नातक राजकीय महाविद्यालय जयहरीखाल से किया, जबकि पत्रकारिता में स्नातकोत्तर गढ़वाल विश्वविद्यालय कैम्पस श्रीनगर से किया है।
श्रीनगर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एमए करने के बाद त्रिवेन्द्र सिंह रावत 1984 में देहरादून चले गये। यहां उन्हें आरएसएस में अहम पदों पर जिम्मेदारी सौंपी गई। देहरादून में संघ प्रचारक की भूमिका निभाने के बाद त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मेरठ का जिला प्रचारक बनाया गया। जहां उनके काम से संघ इतना प्रभावित हुआ कि इन्हें उत्तराखंड बनने के बाद 2002 में भाजपा के टिकट पर कांग्रेस के विरेन्द्र मोहन उनियाल के खिलाफ चुनावी मैदान में उतार दिया गया।
2002 में त्रिवेन्द्र सिंह रावत (Trivendra Singh Rawat) ने डोईवाला से पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 2007 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से भाजपा ने त्रिवेन्द्र सिंह रावत पर भरोसा जताया और वहां राज्य विधानसभा पहुंचने में सफल हुए। लेकिन वर्ष 2012 में अपनी परम्परागत सीट डोईवाला छोड़कर रायपुर से चुनाव लड़े, लेकिन यहां उन्हें कांग्रेस से हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद हरिद्वार से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जब रमेश पोखरियाल निशंक ने डोईवाला सीट छोड़ी तो त्रिवेन्द्र सिंह रावत फिर से इस विधानसभा सीट से कांग्रेस के हीरा सिंह बिष्ट के खिलाफ उपचुनाव में चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन फिर से उन्हें इस सीट पर हार का सामना करना पड़ा।
पार्टी संगठन को त्रिवेन्द्र सिंह रावत की नेतृत्व क्षमता पर पूरा भरोसा था और इस दौरान उन्हें राष्ट्रीय सचिव बनाया गया। साथ ही झारखंड़ जैसे राज्य का प्रभारी और लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तरप्रदेश के सह प्रभारी की जिम्मेदारी सौंपी गई जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।
2017 के विधानसभा चुनाव में त्रिवेन्द्र सिंह रावत (Trivendra Singh Rawat) एक बार फिर से डोईवाला विधानसभा से चुनावी मैदान में उतरे और इस बार उन्होंने कांग्रेस के हीरा सिंह बिष्ट को करारी हार दी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से रावत की नजदीकियों और संघ के भरोसेमंद स्वयंसेवक होने के कारण त्रिवेंद्र रावत आज उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच रहे हैं।
त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के 9वें मुख्यमंत्री हैं। रावत के नाम पर विधायक मंडल दल की बैठक में मुहर लग चुकी है। त्रिवेंद्र सिंह रावत शनिवार को देहरादून के परेड मैदान में पीएम मोदी और अमित शाह की मौजूदगी में शपथ लेंगे। संघ के स्वयं सेवक से लेकर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तक का सफर तय करने वाले त्रिवेंद्र सिंह के बारे में ये दस बातें बड़ी अहम हैं।
त्रिवेंद्र सिंह रावत का राजैनतिक सफर :-
1979 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में बतौर स्वयं सेवक जुड़े।
1981 में संघ के प्रचारक के तौर काम करने का संकल्प लिया।
1985 में देहरादून महानगर के प्रचारक बनाए गए।
1993 में भाजपा के संगठन मंत्री बनाए गए।
2002 में पहली बार डोईवाला से विधायक चुने गए।
2007 में दोबारा विधायक चुने गए, और कैबिनेट मंत्री बने।
2012 में रायपुर से विधानसभा का चुनाव हारे।
2013 में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव के साथ ही यूपी में सह प्रभारी बनाए गए।
2014 में झारखंड प्रभारी रहते हुए भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, 2014 उपचुनाव में डोईवाला से हीरा सिंह बिष्ट ने हराया।
2017 में डोईवाला से तीसरी बार विधायक बने।
2017 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे।